सुंदरलाल बहुगुणा : जिन्होंने गांधी को जिया

by | May 29, 2021

सुंदरलाल बहुगुणाः जिन्होंने गांधी को जिया

पेड़, प्रकृति से प्यार करना सिखाया, विकास की सीमा बताई

विख्यात पर्यावरणविद् व हिमालय की पहचान बन चुके सुंदरलाल बहुगुणा जी का पिछले दिनों निधन हो गया।

मुझे याद आ रहा है जब पहली बार मैंने उन्हें देखा व सुना था। यह 90 के दशक के उत्तरार्ध की बात है, जब वे बड़े बांधों की एक बैठक में इन्दौर आए थे। उन्होंने बैठक में क्या कहा, पूरी बातें याद नहीं, पर एक बात जरूर याद रही कि पेड़ भी जिंदा हैं, अगर उनसे हम गले लगते हैं तो उनका दिल भी धड़कता है, वे बातें करते हैं।

प्रकृति को वे एक वस्तु नहीं, समुदाय मानते थे। जीता-जागता समुदाय। जंगल को लकड़ी नहीं, समस्त जीव-जगत का घर मानते थे। दूसरी बात है मनुष्य अकेला ही इस धरती पर नहीं है, इस धरती पर उसका ही समाज नहीं है। धरती सबकी है, जीव जंतुओं, पेड़ पौधों, कंद-मूल, पक्षियों, कीट पतंगों सबकी है। इनका जीवित समुदाय है, जैसा हमारा है. उसका सम्मान करना जरूरी है।

यह सोच औद्योगिक क्रांति की थी कि प्रकृति एक वस्तु है जितना चाहो उसका शोषण कर लो। पेड़ कच्चा माल है. पैसा कमाने का जरिया है। गांधीजी ने इसकी खिलाफत बहुत पहले कर दी थी और हिन्द स्वराज में इसे विस्तार से बताया था कि क्यों वे इसका विरोध करते हैं। उनका प्रसिद्ध कथन हमेशा ही याद करने लायक है पृथ्वी के पास सबकी जरूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं पर लालच के लिए नहीं।

स्वराज की सोच है कि गांव आत्मनिर्भर रहे,स्वशासन हो, हरेक गांव की स्वतंत्रता हो, उत्पादन की, विकास की, बाहर पर निर्भर न रहें। गांव के सभी मामलों में निर्णय की स्वतंत्रता हो।

चिपको आंदोलन सिर्फ पेड़ व जंगल बचाने का आंदोलन ही नहीं था, बल्कि प्रकृति व मनुष्य के बीच परस्पर सहयोग का संबंध बनाने का आंदोलन था। समाज में इस प्रकार के विचार, सोच व व्यवहार कायम करने का आंदोलन था। गांवो को स्वावलंबी और आत्मनिर्भर बनाने की मुहिम भी थी। सभ्यता व ग्रामीण कृषि संस्कृति बचाने की मुहिम थी।

यह आंदोलन महिलाओं की अगुआई में हुआ था। इसका श्रेय बहुगुणा जी भी महिलाओं को देते थे। वे कहते थे महिलाएं जंगल का महत्व अच्छे से जानती हैं क्योंकि वह उनका मायका है, जो हर संकट के समय उनके साथ रहता है। जंगल से ही उनकी सब जरूरतें पूरी होती हैं। फल, फूल, शहद, ईंधन, चारा, पानी, रेशे सब कुछ। और वे जंगलों में स्वतंत्र होकर जाती हैं, जहां उनके गीत गूंजते हैं।

एकल जंगल व पेड़ लगाने का उन्होंने विरोध किया। मिश्रित जंगल पर जोर दिया, जो लोगों के चारे, पानी, ईंधन, खाद्य, रेशे की जरूरतें पूरी कर सके। खेतों को उपजाऊ मिट्टी दे।

पेड़ सिर्फ लकड़ी नहीं देता है, वह प्राणवायु, कई तरह के पोषक तत्व और पानी देता है। बारिश लाता है, और घनी छाया देता है. गांवों में पेड़ों ने नीचे खाट डालकर सोते हैं और किसान मेहनत करके पेड़ों की छांवों में सुस्ताता है। एक पेड़ की कीमत लाखों में होती है, और वह अगली पीढ़ियों को भी फल देता है।

तो हम प्रकृति की सुनें, वह बोल नहीं सकती पर महसूस करवा सकती है, अगर हम उसकी सुनना चाहें तो। पहाड़, पत्थर, नदियों की को सुनें, उनसे बातें करें, उनसे प्यार करें। मिट्टी पानी का संरक्षण करें।

टिहरी बांध का विरोध किया और कहा बांध बनाने की बजाय पेड़ लगाओ, वह पानी देंगे। स्थाई रूप से पानी मिलेगा। बांध में गाद भर जाएगी, धीरे धीरे बांधों का पानी खत्म हो जाएगा, तब बांध खंडहर हो जाएगा। लेकिन मुख्यधारा के विकास में ऐसी सोच की जगह नहीं है। पर इससे इसका महत्व कम नहीं होता।

यहां यह बताना जरूरी नहीं है कि प्राकृतिक संसाधन खत्म होते जा रहे हैं। जंगल, खनिज, पेट्रोल डीजल सभी खत्म होंगे, तब हमारे पास जीने के लिए क्या होंगा? पानी और भोजन हमें प्रकृति ही देती है, न पानी कोई कारखाने में बनता है और न ही भोजन। इस विकास की सीमा है. तो जो धरती व प्राकृतिक परिवेश हमें मिला है, वह हमारा यानी मनुष्य का ही नहीं, समस्त जीव जगत का है और आनेवाली पीढ़ियों का भी, इसका संरक्षण बहुत जरूरी है।

वे एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने जो कहा, वह जिया, गांधी की तरह। जो कहते थे जीवन ही मेरा संदेश है, बहुगुणा जी का जीवन भी ऐसा ही था, जो सदैव प्रेरणा देता रहेगा।