कच्छ के मालधारी चारागाह की जमीन का सामुदायिक अधिकार पाने के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। उन्होंने वन अधिकार कानून के तहत दावे फार्म भरे हैं। गुजरात सरकार ने इसे सकारात्मक ढंग से लेकर गैर अनुसूचित क्षेत्र में सामुदायिक अधिकार की अधिसूचना जारी कर दी है। लेकिन काफी समय गुजरने के बाद भी अधिकार देने की प्रक्रिया पूरी नहीं हुई है। मालधारी अधिकार पाने का इंतजार कर रहे हैं।
इस वर्ष (2016) जुलाई के आखिरी हफ्ते में एक कार्यक्रम के सिलसिले में गया था। मालधारियों के गांव देखे थे और उनसे बात की थी। कच्छ जिला देश के सबसे बड़े जिलों में से एक है। यहां कच्छ का सबसे बड़ा नमक-भरा रण है जिसे देखने लोगों की भीड़ उमड़ती है। लवणीय दलदली भूमि और लम्बे घास के मैदान भी हैं। बारिश में जब पानी भर जाता है तो यह द्वीप की तरह बन जाता है। कछुआ का आकार का है, इसलिए इसे कच्छ कहते हैं।
बारिश में मिट्टी दलदली हो जाती है। जब पानी वाष्पीकृत हो जाता है तो मिट्टी पर नमक की पर्त जम जाती है। यही दिखता है सफेद। सफेद रेगिस्तान। सिने सितारे अमिताभ बच्चन की भाषा में कहें तो यहां चांदनी रात की ये सफेद धरती, ये लगता है कि जैसे चांद जमीन पर उतर आया है।
यहां की भौगोलिक बनावट, पर्यावरण और पहाड़ियां इसे जैव विविधता से भरपूर बनाते हैं। इस जिले में 4 अभयारण्य हैं, जिनमें पेड़-पौधों व जंगली जानवरों की विविधता मौजूद है।
यहां के बाशिन्दे मालधारी (पशुपालक) हैं जिनका सदियों से प्रकृति से पारस्परिक संबंध है। मालधारी दो शब्दों से मिलकर बना है। माल यानी पशुधन, धारी यानी धारण करने वाले, संभालने वाले। वे घुमंतू पशुपालक हैं। गाय, भैंस, ऊंट, घोड़े, बकरी और गधे पालते हैं।
मालधारी बहुत प्रतिकूल परिस्थितियों में रहते हैं। वे अपने कौशल और मवेशियों की परवरिश से अपना जीवनयापन करते हैं। कच्छ में बन्नी इलाका है। यहां की बन्नी भैंस और काकरेज गाय बहुत प्रसिद्ध हैं। इन देसी नस्लों को मालधारियों ने विकसित, संरक्षित और संवर्धित किया है। बन्नी भैंस में अधिक दूध उत्पादन क्षमता है। वे यहां के चारे-पानी से पेट भर लेती हैं। उनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक है। वे रात को चरती हैं। शाम को चरने जाती हैं, दूसरे दिन सुबह लौटती हैं। चरवाहे सिर्फ बरसात में चराने जाते हैं। अन्यथा, मवेशी खुद चरकर वापस आ जाते हैं।
उनमें से एक बड़ी बुजुर्ग भैंस जिसके गले में घंटी बंधी होती है, उसके इशारे पर सब उसके पीछे चरने जाती हैं, और घास चर कर वापस आ जाती हैं। 2010 में यहां के मालधारियों और इस इलाके में कार्यरत गैर सरकारी संस्था सहजीवन के प्रयास से बन्नी भैंस को देशी नस्ल के रूप मान्यता मिल गई है।
सरगू गांव के सलीम भाई इस भैंस के बारे में बताते हैं कि “हमारी बन्नी की भैंस प्रसिद्ध है। एक भैंस 1 लाख की बिकती है, भैंस हमारी नेनो है। टाटा की नेनो कार भी एक लाख में ही बिकती है। और जब नेनो की जिंदगी खत्म हो जाती है उसे बेचने पर न के बराबर रूपए मिलते हैं।”
काकरेज, देशी नस्ल की गाय है, जो अधिक दूध उत्पादन के लिए जानी जाती है। पर इसके बैल खेत जुताई में भी अच्छे होते हैं। काकरेज नस्ल के बैल या गाय कद-काठी में सुडौल होते हैं। आधे चांद की तरह इनके सींग बहुत सुंदर दिखते हैं।
मालधारियों का परंपरागत ज्ञान अनूठा है। वे देशी नस्लों को बनाने – बढ़ाने तो हैं ही, साथ ही रंग-बिरंगी संस्कृति के वाहक भी है। यहां की खूबसूरत कच्छी अचरक प्रिटिंग और कढ़ाई-बुनाई की कला में पारंगत हैं। पहले मालधारी अपनी रंग-बिरंगी पोशाक से ही ये पहचाने जाते थे।
मालधारियों का संगीत से गहरा जुड़ाव है। जब वे अपने मवेशी लेकर चराने जाते हैं तब जोडिया पावा( बांसुरी की जोड़ी) जैसे परंपरागत वाद्य यंत्र बजाते हैं। इससे वे कुदरत के साथ अपने रिश्ते को मजबूत करते हैं।
इसकी एक झलक भुज के पास हुए विकल्प संगम में दिखी जब कच्छ के एक लोक कलाकार नूर मोहम्मद ने जोडिया पावा की तान छेड़कर सबको मंत्रमुग्ध कर दिया था। विकल्प संगम का आयोजन 27 से 30 जुलाई को भुज के पास गांव में हुआ था। जिसमें कच्छ के करीब 70-80 लोगों ने भाग लिया। इसमें कई संस्थान जैसे कि खमीर, सहजीवन, हुनर शाला, एसीटी, कच्छ महिला विकास संगठन, कच्छ नवनिर्माण अभियान, सेतु, सखी संगिनी आदि के प्रतिनिधि शामिल हुए। इसके अलावा पंचायत स्थानीय पंचायत प्रतिनिधि, मालधारी, कलाकार, बुनकर, कारीगर, लोक कलाकार आदि ने हिस्सा लिया।
संगम में वैकल्पिक विकास पर स्थानीय समुदायों, गैर सरकारी संस्थाओं और जानकारों से यह जानने, समझने की कोशिश की जाती है कि मौजूदा विकास के विकल्प क्या हैं? किस तरह हम बेहतर विकास कर सकते हैं?
बन्नी सूखा इलाका है। मालधारी अपने और मवेशियों के लिए विरदा पद्धति से वर्षा जल को एकत्र करते हैं। यह एक परंपरागत जल संरक्षण पद्धति है। मालधारी पानी की जगह खोजने व खुदाई करने में माहिर हैं। इसमें वे ऐसी झीलनुमा जगह चयन करते हैं, जहां पानी का बहाव हो। इसमें छोटे उथले कुएं बनाते हैं, और उनमें बारिश की बूंदें एकत्र की जाती हैं। नीचे भूजल खारे पानी का होता है, उसके ऊपर बारिश के मीठे पानी को एकत्र किया जाता है, जिसे साल भर खुद के पीने और मवेशियों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। मैंने होडको के पास एक विरदा में यह मीठा पानी पिया।
यहां आद्रभूमि (जलभूमि) भी है, जो कच्छ जैसी सूखे इलाके के लिए बहुत उपयोगी है। आद्रभूमि वैसी होती है जैसे नदी का किनारा। यह वैसी जगह होती है, जहां प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष पानी होता है। यहां कई जलभूमि हैं- शेरवो ढांड, वेकरिया ढांड, खीरजोग ढांड, कुंजेवारी, हंजताल, अवधा झील और लूना झील है। छारी ढांड बहुत प्रसिद्ध है। जहां पानी रहता है, वहां पक्षी रहते हैं। यहां पक्षियों की 150 प्रजातियां हैं।
जिस तरह बन्नी मवेशियों की देसी नस्लों के लिए प्रसिद्ध है, उसी तरह अपने लम्बे-चौड़े चारागाहों के लिए जाना जाता है। यहां घास की 40 प्रजातियां हैं। लेकिन पिछले कुछ दशकों से चारागाह में कमी आई है। यहां एक विलायती बबूल जिसे यहां गांडो (मतलब पागल) बावेल कहते हैं, काफी फैल गई है। अंग्रेजी में इसका प्रोसोपीस जूलीफ्लोरा नाम है। कई जगह पर इसे वनविभाग ने ही फैलाया था। जिसकी पत्तियां खाकर गाय और बकरियों के दांत खराब हो जाती हैं। कुछ तो खाकर बीमार होती हैं, फिर मर जाती हैं।
सरगू ग्राम निवासी सलीम भाई कहते हैं कि मालधारी पशुपालन करते हैं। वे पशुओं की नस्लों के जानकार हैं। उनकी बीमारियों और उनका उपचार भी जानते हैं। वे कहते हैं पहले सौराष्ट्र के किसानों को खेत जोतने के लिए बैल देते थे, वह भी तीन साल के उधार, लेकिन इन दिनों उधर जाने का मन नहीं होता।
भुज स्थित सहजीवन संस्था की कार्यकर्ता ममता पटेल और संगीता चौधरी ने बताया कि बन्नी के मालधारियों ने अपना एक संगठन बनाकर यहां की जैव विविधता, संस्कृति, मवेशी और उसके चारागाह बचाने की कोशिश शुरू की है। वर्ष 2008 में बन्नी पशु उचेरक मालधारी संगठन बनाया गया है। इस संगठन ने पशुओं के चारे-पानी समस्या को हल करने के साथ दूध की मार्केटिंग पर भी काम किया है। आज मालधारियों को दूध के अच्छे दाम मिल रहे हैं। इस इलाके में कुछ दूध डेयरियां भी खुल गई हैं जो उचित दाम पर दूध खरीदती हैं।
यह संगठन वार्षिक पशु मेला भी करता है, जिसमें मवेशियों की खरीद-बिक्री होती है। दूर-दूर से लोग पशु मेला में आते हैं, यहां की नस्लों को देखते हैं। यहां के कच्छी व बन्नी के भोजन का स्वाद चखते हैं। मेले में मनुष्यों व पशुओं की स्पर्धाएं भी होती हैं, जिनमें कच्छी संस्कृति की खुशबू आती है।
सहजीवन के कार्यकर्ता इमरान मुतवा बताते हैं कि मालधारियों का संगठन वनविभाग की उस कार्ययोजना का भी विरोध कर रहे हैं जिसमें यह चारागाह की जमीन गांडो बावेल के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं। इसके लिए वनविभाग चारागाह की जमीन पर फेसिंग लगाएगा और चारागाह पर पाबंदी करेगा। लेकिन लोगों के विरोध को देखते हुए वह फिलहाल पीछे हट गया है।
बन्नी के इमरान मुतवा कहते हैं कि हम चारागाह का इस्तेमाल सदियों से करते आ रहे हैं। इससे हमारा व पशुओं का जीवन जुड़ा है। हमारा इलाका पशुपालक है उसे वैसा ही रहने दो – बन्नी को बन्नी रहने दो। इस नारे से जुड़ी मुहिम को आगे ले जाने के लिए ही वन कानून अधिकार 2006 के तहत सामुदायिक अधिकार के लिए अर्जी दी है।
आम तौर माना जाता है कि घुमंतू पशुपालक जंगल और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं। लेकिन यह सच नहीं है, इन्होंने सदियों से प्रकृति के साथ जीने की कला सीखी है। मवेशियों की देसी नस्लें बनाई और बचाई हैं। पानी की परंपरागत विरदा पद्धति को ईजाद किया है, और पानी की बूंद-बूंद का उपयोग किया है। पेड़-पौधे और वनस्पतियों के जानकार होते हैं। देसी जड़ी-बूटियों से मवेशियों का इलाज करते हैं। वे स्वावलंबी जीवनशैली जीते हैं, किसी पर निर्भर नहीं हैं। कड़ी परिस्थतियों में जीते हैं, ज्ञान का निर्माण करते हैं, नई-नई खोज करते हैं। पशुपालकों का बड़ा योगदान अर्थव्यवस्था में है, आजीविका देने और उसे बचाने में है और कुपोषण दूर करने में है। लस्सी, छाछ, दूध और घी की खाने-पीने की संस्कृति है। लेकिन उनके योगदान को नहीं सराहा जाता। उनको नहीं समझा जाता। उनके ज्ञान को मान्यता नहीं दी जाती।
ऐसा नहीं है कि मालधारियों के सामने कुछ चुनौती नहीं है। उनके सामने अपनी परंपरागत जीवनशैली को बचाने की सबसे बड़ी चुनौती है। एक तो घास के मैदानों में गांडो बावेल बहुत फैल रहा है, उससे उनके पशुओं को घास की समस्या है। दूध, घी के बाजिव दाम का सवाल है। बच्चों की शिक्षा में परंपरागत कौशल के शामिल न होने से परंपराओं को आगे ले जाने का सवाल है। पर्यटन से आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ है लेकिन संस्कृति व पर्यावरण पर विपरीत असर हुआ है। कुछ हद यह समस्याएं गैर सरकारी संस्थाओं के कामों से कम हुई हैं। लेकिन अभी इस दिशा में आगे काम करने की बहुत जरूरत है।
बहरहाल, मालधारियों, उनके योगदान और ज्ञान को आज समझने की जरूरत है। आज जलवायु बदलाव के दौर में परंपरागत ज्ञान टिकाऊ विकास के लिए जरूरी हो गया है। इसमें मालधारियों की जीवनशैली मार्गदर्शक बन सकती है। कम संसाधनों में और प्रकृति के साथ जुड़ कर किस तरह एक रंग-बिरंगी संस्कृति में रच-बस कर जीवन जी सकते हैं, हमें मालधारियों से सीखना होगा। आशा है उन्हें जल्द ही उनका चारागाह का सामुदायिक अधिकार मिल जाएगा।
विकल्प संगम के लिये लिखा गया विशेष लेख (Specially written for Vikalp Sangam)